Naren's Hindi Blog

मंगलवार, सितंबर 20, 2005

आभार

- शिव मंगल सिंह "सुमन"

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रसाद --
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद --
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद --
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर?
कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!
आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद --
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

- शिव मंगल सिंह "सुमन"

सोमवार, सितंबर 19, 2005

आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?
आज से दो प्रेम योगी, अब वियोगी ही रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ!
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

आयेगा मधुमास फिर भी, आयेगी श्यामल घटा घिर,
आँख भर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिर!
प्राण तन से बिछुड़ कर कैसे रहेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

अब न रोना, व्यर्थ होगा, हर घड़ी आँसू बहाना,
आज से अपने वियोगी, हृदय को हँसना सिखाना,
अब न हँसने के लिये, हम तुम मिलेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे
दूर होंगे पर सदा को, ज्यों नदी के दो किनारे
सिन्धुतट पर भी न दो जो मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

तट नदी के, भग्न उर के, दो विभागों के सदृश हैं,
चीर जिनको, विश्व की गति बह रही है, वे विवश है!
आज अथइति पर न पथ में,मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

यदि मुझे उस पार का भी मिलन का विश्वास होता,
सच कहूँगा, न मैं असहाय या निरुपाय होता,
किन्तु क्या अब स्वप्न में भी मिल सकेंगे?
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

आज तक हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखा?
कल्पना के मृदुल कर से मिटी किसकी भाग्यरेखा?
अब कहाँ सम्भव कि हम फिर मिल सकेंगे!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

आह! अन्तिम रात वह, बैठी रहीं तुम पास मेरे,
शीश कांधे पर धरे, घन कुन्तलों से गात घेरे,
क्षीण स्वर में कहा था, "अब कब मिलेंगे?"
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

"कब मिलेंगे", पूछ्ता मैं, विश्व से जब विरह कातर,
"कब मिलेंगे", गूँजते प्रतिध्वनिनिनादित व्योम सागर,
"कब मिलेंगे", प्रश्न उत्तर "कब मिलेंगे"!
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?

- पं. नरेन्द्र शर्मा

बुधवार, सितंबर 14, 2005

क्या लिखूँ?

पिछले दो ब्लॉग्स मे डा. हरिवंशराय बच्चन की कविताओं के बाद मैने सोचा कि अब कुछ स्वयं का भी लिख लिया जाये. मगर "क्या लिखूँ? अब मैं महान लेखक पदुमलाल पुन्नालाल बक्शीजी तो हूँ नहीं कि "क्या लिखूँ?" कहते-कहते इसी शीर्षक से एक अदभुत कृति का सृजन कर डालूँ..... इस चिट्ठा का शीर्षक तो एक प्रश्न है जो मैं स्वयं से कर रहा हूँ. चलो, फिर भी कोशिश करते हैं, कुछ लिखने की !


मुझे लगता है कि, इस सप्ताह इन्द्र देवता का शचि देवी के साथ कुछ झगड़ा चल रहा है, तभी तो वे आजकल अपने 'ऑफिस' में जल्दी आकर, क्रोध में IIT खड़गपुर और आस-पास के इलाकों पर झमाझम पानी बरसा रहे हैं. उनका यह प्रकोप अभी कुछ समय पूर्व गुजरात और महाराष्ट्र (मुख्यतः मुम्बई) के निवासियों ने भी अनुभव किया था. :-( चलिये कोशिश करते हैं, इन्द्र देव के हमारे जीवन पर प्रभाव का विश्लेषण करने की !


कल रात मेढकों का संगीतमय स्वर लोरी की भाँति सुनकर मैं किसी प्रकार सोया और जब सुबह एक मित्र की असमय फोन कॉल से जागा, तो प्राँगण का दृश्य वर्णन से परे था. वह जल मग्न छात्रावास का दृश्य और अनवरत वृष्टि मुझे अनायास ही कविवर जयशंकर प्रसाद की इन पँक्तियों का स्मरण करा गयी,


"ऊपर हिम था नीचे जल था, एक सघन था एक विरल ।
एक ही तत्व की उधर समानता, कहो उसे जड़ या चेतन ॥"


वैसे यह तो आतिशयोक्ति हो गई, क्योंकि ना तो यहाँ 'ऊपर हिम था' और ना ही 'कामायनी' की भाँति यह कोई प्रलय का दृश्य था, जिसका वर्णन प्रसाद जी की इन पँक्तियों में हुआ है. फिर भी यदि आप भारतवर्ष के उस एक-चौथाई जन समूह के दृष्टिकोण से देखें, जो आज भी गरीबी की रेखा से नीचे (BPL) है, तो आप पायेंगे कि इस प्रकार का इन्द्र देव का प्रकोप, उनके लिये यह सब कुछ, प्रलय से कुछ कम भी नहीं था. अरे ये मैंने क्या किया? कहाँ वर्षा जैसा रूमानी (romantic) मौसम, और कहाँ भारत की BPL जनता? कैसी विसंगति है? चलिये, कुछ और लिखता हूँ और फिर से सोचता हूँ कि, "क्या लिखूँ?"


आज से पहले मैं महान आर्किटेक्ट लुई काह्न (Louis I. Kahn) को भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद के मुख्य आर्किटेक्ट की तरह से ही जानता था, मगर आज उनके सुपुत्र Nathaniel Kahn द्वारा निर्देशित फिल्म My Architect: A Son's Journey को देखने के बाद उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व की एक झलक मिली. IIT खड़गपुर के Architecture & Regional Planning विभाग द्वारा प्रदर्शित इस फिल्म के दौरान स्वयं Nathaniel Kahn और फिल्म की producer "Susan Rose Behr" भी उपस्थित थे. बाहर हो रही इन्द्र देव की जल वृष्टि के बावजूद प्रेक्षाग्रह खचाखच भरा था और फिल्म प्रदर्शन के पश्चात, Nathaniel और Susan ने दर्शकों के प्रश्नों का जवाब देकर उन्हें निराश नहीं किया. किसी दर्शक ने कहा कि यह फिल्म Ayn Rand के The Fountainhead तरह है, तो किसी ने इसे Feature-Film-cum-documentary कहा. मेरे मित्रों को भी यह फिल्म खासी अच्छी लगी. मुझे Louis Kahn के इस संवाद ने काफी प्रभावित किया,


How accidental our existences are, really, and how full of influence by circumstance. अर्थात् "वास्तव में, हमारे अस्तित्व कितने अनपेक्षित हैं और कितने परिस्थितियों से पूर्णतः प्रभावित होने वाले!"


है ना सोचने लायक बात? मगर अभी तो मैं इन्द्र देव से प्रार्थना करता हूँ कि अगली बार से पति-पत्नी के झगड़े में बेचारी BPL जनता को मत परेशान करें और फिलहाल तो ये सोचता हूँ कि,


क्या लिखूँ? :-)



-नरेन्द्र शुक्ल

गुरुवार, सितंबर 01, 2005

जो बीत गई सो बात गई

-डा. हरिवंशराय बच्चन
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गये फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मचाता है

जो बीत गई सो बात गई


जीवन में वह् था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियां
मुर्झाईं कितनी वल्लरियां
जो मुर्झाईं फ़िर कहां खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है

जो बीत गई सो बात गई


मृदु मिट्टी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आये हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वो मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है

जो बीत गई सो बात गई